
Ganesh Shankar Vidyarthi: जब गांधी ने कहा था मुझे ईर्ष्या होती है कि मैं विद्यार्थी जी की तरह मर नहीं सका ! जानिए उस शंकर की कहानी जिसने कलम से अन्याय को भस्म कर दिया
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हर शब्द एक विद्रोह था, तब गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को देशभक्ति का सबसे बड़ा हथियार बनाया. अपने निर्भीक लेखन और निडर विचारों से उन्होंने पत्रकारिता को जनआंदोलन का रूप दिया. आज उनका 134वां जन्मदिन उनके अमर बलिदान को याद करने का दिन है. लखनऊ के मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार प्रेमशंकर अवस्थी उनकी अमर पत्रकारिता पर अपने विचार रख रहें हैं...
लेखक वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर अवस्थी: भारत की आज़ादी की लड़ाई में जब हर आवाज़ पर पहरा था, तब गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी कलम को तलवार बना दिया. उन्होंने पत्रकारिता को जनहित और क्रांति का माध्यम बनाया. अंग्रेजों की हुकूमत में ‘प्रताप’ जैसा अखबार निकालना साहस का कार्य था, और विद्यार्थी जी ने यह साहस अपने जीवन की कीमत पर निभाया.
स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता बनी हथियार, विद्यार्थी बने प्रतीक

इन्हीं योद्धाओं में एक नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है—अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का. जिन्होंने न केवल साम्प्रदायिक सौहार्द की मशाल जलाई, बल्कि अपने प्राणों की आहुति देकर पत्रकारिता को बलिदान का पर्याय बना दिया. आज जब देश उनका 134वां जन्म दिवस मना रहा है, तो यह स्मरण सिर्फ श्रद्धांजलि नहीं बल्कि उनकी विचारधारा को पुनर्जीवित करने का संकल्प भी है.
फतेहपुर की परंपरा में रचा-बसा त्याग और संस्कार
26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद (आज प्रयागराज) के अतरसुईया में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी का अधिकांश बचपन फतेहपुर जनपद के हथगाम कस्बे में बीता. उनके पिता बाबू जय नारायण ग्वालियर रियासत में शिक्षक थे और माता गोमती देवी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं.

कहा जाता है कि विद्यार्थी जी के जन्म से पूर्व उनकी नानी ने सपने में गणेश जी की मूर्ति बेटी को देते देखा, इसी से उनका नाम ‘गणेश’ रखा गया. बचपन से ही वे तेजस्वी, चिंतनशील और अध्ययनशील थे. स्कूल के दिनों में ही उन्हें कोर्स से अलग पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था, जिसने आगे चलकर उन्हें भारतीय पत्रकारिता का सबसे तेजस्वी नायक बना दिया.
कर्मयोगी से ‘प्रताप’ तक: पत्रकारिता का ज्वालामुखी
गणेश शंकर विद्यार्थी ने शुरुआती जीवन में कई नौकरियां कीं, परंतु उनका मन उनमें नहीं लगा. साल 1911 में उन्होंने नौकरी छोड़कर पूर्ण रूप से लेखन को जीवन का लक्ष्य बनाया. उनके लेख ‘कर्मयोगी’ और ‘अभ्युदय’ जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे. पं. सुन्दर लाल के मार्गदर्शन में उन्होंने ‘कर्मयोगी’ में कार्य किया और पत्रकारिता की गहराई को समझा.
यहीं से उनके भीतर विद्रोह की ज्वाला भड़की और उन्होंने निर्णय लिया कि वे कलम को अन्याय के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार बनाएंगे. 9 नवम्बर 1913 को उन्होंने कानपुर से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन शुरू किया, जो आगे चलकर दैनिक बन गया. यही ‘प्रताप’ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारियों की आवाज बन गया.
किसानों, मजदूरों और क्रांतिकारियों की आवाज बना ‘प्रताप’
‘प्रताप’ ने सिर्फ खबरें नहीं छापीं, उसने आवाजों को दिशा दी. विद्यार्थी जी किसानों, मजदूरों और आम जनता की पीड़ा के पक्षधर बने. उन्होंने तालुकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का खुला विरोध किया. बिहार के चम्पारण और रायबरेली के मुंशीगंज जैसे आंदोलनों में ‘प्रताप’ ने अंग्रेजी सरकार की क्रूरता उजागर की. यही नहीं, विद्यार्थी जी ने भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के लेख गुप्त नामों से प्रकाशित किए. उनकी निर्भीक पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन हिल गया था. उन्होंने साबित किया कि पत्रकारिता सिर्फ सूचना नहीं, बल्कि क्रांति की चेतना भी है.
राजद्रोह के मुकदमे से जेल तक: देश के लिए सब कुछ न्योछावर
विद्यार्थी जी के ओजस्वी भाषण और लेख अंग्रेजी हुकूमत के लिए चुनौती बन चुके थे. साल 1923 में फतेहपुर में आयोजित प्रादेशिक सम्मेलन में उनके भाषण को अंग्रेजों ने राजद्रोह माना. उनके खिलाफ धारा 124(अ) के तहत मुकदमा चला और 30 मार्च 1923 को उन्हें एक वर्ष का कठोर कारावास मिला. जब शुभचिंतकों ने माफी मांगने की सलाह दी, तो उनकी पत्नी ने कहा – “मैं कर्तव्य करते हुए तुम्हारी मृत्यु भी पसंद करूंगी.” यही त्याग और निष्ठा विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व की पहचान थी. उन्होंने जेल की सजा को भी देशभक्ति का प्रतीक माना और कभी अपने विचारों से पीछे नहीं हटे.
साम्प्रदायिक दंगे में बलिदान: मृत्यु से बड़ी हुई अमरता
23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई, तो देश में आक्रोश फैल गया. अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे भड़काए. विद्यार्थी जी ने हिंसा रोकने के लिए खुद मैदान में उतरकर दोनों समुदायों को शांत करने का प्रयास किया.
लेकिन 25 मार्च 1931 को नई सड़क पर भीड़ ने उन्हें मार डाला. उनका पार्थिव शरीर बड़ी मुश्किल से मिला. महात्मा गांधी ने कहा था – “मैं नहीं मानता कि गणेश शंकर की आत्माहुति व्यर्थ गई. मुझे ईर्ष्या होती है कि मैं विद्यार्थी जी की तरह मर नहीं सका.” यही शब्द उनकी अमरता का प्रमाण हैं.
आज की पत्रकारिता के लिए चुनौती हैं विद्यार्थी जी के आदर्श
गणेश शंकर विद्यार्थी आज भी भारतीय पत्रकारिता के आदर्श हैं. उन्होंने कलम को जनता की आवाज बनाया, सत्ता की चापलूसी नहीं. उन्होंने दिखाया कि पत्रकारिता सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि जनसेवा का धर्म है. आज जब मीडिया कॉर्पोरेट दवाब और राजनीतिक झुकावों में बंट चुका है, विद्यार्थी जी की निर्भीकता पत्रकारों के लिए एक आईना है. उनके सिद्धांत बताते हैं कि सच्चा पत्रकार वही है जो सत्ता से सवाल करने की हिम्मत रखता हो.
