Jagdeep Dhankhar News: अब राष्ट्रपति भी कोर्ट के आदेश पर चलें? न्यायपालिका के 'सुपरपावर' पर उपराष्ट्रपति का तंज
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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankhar) ने न्यायपालिका की भूमिका पर तीखा प्रहार करते हुए अनुच्छेद 145(3) और 142 के दुरुपयोग पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता और न्यायपालिका की जवाबदेही तय होनी चाहिए.'बेसिक स्ट्रक्चर' सिद्धांत पर भी उन्होंने कटाक्ष किया.

Jagdeep Dhankhar News: देश की संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं और अधिकारों को लेकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक बार फिर बहस को गरमा दिया है. एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सटीक तंज कसते हुए कई गंभीर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट को केवल संविधान की व्याख्या का अधिकार है, वह भी कम से कम पांच जजों की पीठ द्वारा, लेकिन आज स्थिति ऐसी हो गई है कि राष्ट्रपति तक को निर्देशित किया जा रहा है.
145(3) व्याख्या के लिए है, व्यवस्था चलाने के लिए नहीं
धनखड़ ने स्पष्ट कहा कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को संविधान की व्याख्या का विशेषाधिकार दिया है, लेकिन उसकी भी एक तय सीमा है. "जब अनुच्छेद 145(3) तैयार किया गया, तब सुप्रीम कोर्ट में केवल आठ जज थे. अब 30 से अधिक हैं, लेकिन व्याख्या आज भी पांच जजों की पीठ ही करती है. क्या यह न्यायसंगत है?" उन्होंने पूछा. उनका इशारा न्यायिक सक्रियता के उस स्वरूप की ओर था, जिसमें कोर्ट अपनी व्याख्याओं के ज़रिए शासन के कार्यक्षेत्र में दखल देता दिखता है.
राष्ट्रपति को आदेश देना संविधान के खिलाफ है
उपराष्ट्रपति ने हाल के घटनाक्रमों का हवाला देते हुए गहरी चिंता जताई कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति को समय-सीमा में निर्णय लेने के निर्देश देना असंवैधानिक है. "राष्ट्रपति भारतीय सेना के सर्वोच्च कमांडर हैं. वे संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं। फिर उन्हें आदेश देना किस सिद्धांत के तहत आता है?" उन्होंने पूछा.
उनका साफ संदेश था कि न्यायपालिका अगर कार्यपालिका और राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद को निर्देश देने लगे तो यह संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है.
अनुच्छेद 142 बना न्यूक्लियर मिसाइल–24x7 ऑन
धनखड़ ने विशेष रूप से अनुच्छेद 142 पर व्यंग्य करते हुए कहा, "यह अब लोकतंत्र के लिए एक न्यूक्लियर मिसाइल बन चुका है. जो चौबीसों घंटे न्यायपालिका के पास सक्रिय है" उन्होंने सवाल उठाया कि क्या ये शक्ति संतुलन के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है?
उन्होंने कहा कि न्यायपालिका अगर इस शक्ति का निरंतर और बेलगाम प्रयोग करती है तो संविधान का संतुलन खतरे में पड़ सकता है.
बेसिक स्ट्रक्चर बचा नहीं, बस दिखाया जा रहा है
बात यहीं खत्म नहीं हुई. उपराष्ट्रपति ने 'बेसिक स्ट्रक्चर' सिद्धांत पर भी सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि 1973 के केशवानंद भारती केस में यह सिद्धांत 7-6 के बहुमत से स्वीकार हुआ था. लेकिन 1975 के आपातकाल में जब लाखों नागरिकों को जेल में डाल दिया गया और सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों को नकार दिया, तब यह 'संविधान रक्षक' कहां था?
अगर यह सिद्धांत इतना ही ताकतवर था, तो 1975 में मौलिक अधिकार क्यों नष्ट हो गए? फिर किस ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ की रक्षा हो रही थी? उन्होंने व्यंग्य करते हुए पूछा.
जज कानून भी बनाएं, संपत्ति भी न बताएं?
धनखड़ ने पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े किए. उन्होंने कहा, "हर सांसद और उम्मीदवार को अपनी संपत्ति घोषित करनी पड़ती है. लेकिन जजों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। क्या यह समानता के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है?"
उन्होंने अफसोस जताया कि देश की जनता इन गहरे संवैधानिक प्रश्नों पर चर्चा नहीं करती और उन्हें सिर्फ एकतरफा कथाओं के सहारे गुमराह किया जा रहा है.