Ganesh Shankar Vidyarthi Jayanti : वह पत्रकार जिसकी हिन्दू मुस्लिम दंगो के दौरान चली गई थी जान
आज यानी 26 अक्टूबर को अमर शहीद पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्मदिवस बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है.इस मौक़े पर वरिष्ठ पत्रकार प्रेम शंकर अवस्थी का यह विशेष लेख पढ़ें.
Ganesh Shankar Vidyarthi : भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन ने आजादी के अस्त्र शस्त्र का काम किया हैैै, जो क्रान्तिकारियों के संवाद का माध्यम तो बने ही राष्ट्रहित में पत्रकारिता के ‘‘योगदान’’ से देश भक्ति का जज्बा भी कायम किया। Ganesh shankar Vidyarthi Biography
उन दिनों अखबार निकालना जोख़िम भरा काम था, जहाँ कलम हाँथ में तलवार का काम करती, तो सिर पर बंधा क़फ़न बलिदान का द्योतक होता था। ऐसा ही एक स्वर्णिम अक्षरों में नाम आता है, अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का, उन्हे कौन नही जानता है? जिन्होने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिये अपने प्राणों की बली देकर हिन्दू-मुस्लिम एकता की जो नींव डाली वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक मिसाल बनकर साबित हुई। ऐसे में पत्रकार सिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी के अमर बलिदान को देश कैसे भूला सकता है? Ganesh Shanker Vidyarthi Biography In Hindi
आज अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी जी का 132वां जन्म दिवस है आज ही के दिन बहुमुखी प्रतिभा के धनी और आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता के विराट व्यक्तित्व गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अतरसुईया में 26 अक्टूबर 1890 को नाना सहायक जेल बाबू सूरज प्रसाद के यहां हुआ था। लेकिन उनका सम्पूर्ण बचपन फतेहपुर जनपद के हथगाम कस्बे में ही बीता। विद्यार्थी जी का स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जिले की फतेहपुर जिला जेल ही काफी समय बीता था। विद्यार्थी जी की माता का नाम गोमती देवी तथा पिता बाबू जय नारायण थे। जो ग्वालियर रियासत मुंगावली में एंग्लो वर्ना स्कूल में सेकेन्ड मास्टर हो गये थे।
विद्यार्थी जी के ‘गणेश‘ नामकरण की गाथा तो यह है कि जब स्वयं विद्यार्थी जी गर्भ में पल रहे थे। तो उनकी नानी श्रीमती गंगा देवी ने एक सपना देखा कि वह गणेश जी की मूर्ति अपने पुत्री को दे रहीं है। इसी आधार पर विद्यार्थी का नाम गणेश पड़ा । विद्यार्थी जी की सबसे प्रमाणित जीवनी खुद उनके बडे भाई स्व0 शिव नारायण छोड गये। अनुज की शहादत के बाद उनके उजडे बाल बच्चो के यही एक मात्र सहारा थे। Ganesh Shanker Vidyarthi Biography In Hindi
विद्यार्थी जी ने अपने बाल्यकाल में हथगाम में रह कर शिक्षा ग्रहण की थी। वह इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि अपने विद्यार्थी जीवन में उन्हे कोर्स से इतर पत्रिकाओं की पढने की खूब आदत थी ।शिक्षा ग्रहण के उपरान्त कानपुर सहित कई स्थानो में नौकरियां भी करनी पडी थी। इस बीच विद्यार्थी जी का विवाह इलाहाबाद के एक सम्पन्न परिवार की पुत्री श्रीमती चन्द्रप्रकाश के साथ हुआ था। विद्यार्थी जी का मन नौकरियोें में नहीं लगा और वह नौकरी से त्यागपत्र देकर साल 1911 से गंभीरता से लेखन की ओर मुडे ‘कर्मयोगी‘ और ‘अभ्युदय‘ में उनके लेख प्रमुखता से छपने लगे। इस दौरान उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हो गया। भारत में अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पं सुन्दर लाल के साथ उनके हिन्दी सा0 कर्मयोगी के सम्पादन में सहयोग देने लगे। Ganesh Shanker Vidyarthi Biography
उन दिनो इलाहाबाद से निकलने वाले क्रान्तिकारी पत्र ‘कर्मयोगी‘ की बडी धूम मची थी। कर्मयोगी में अंग्रेजो के विरूद्ध स्वाधीनता आन्दोलन के बडे-बडे लेख छप रहे थे। धीरे-धीरे यह पत्र क्रान्तिकारियों का बन गया था। इस कारण वह इतना प्रभावित हुये कि गणेश शंकर विद्यार्थी पं0 सुन्दर लाल जी को अपना पत्रकारिता का गुरू मानने लगे थे और उन से पत्रकारिता के गुर सीखे थे। सुन्दर लाल जी कहते है कि विद्यार्थी जी को (कर्मयोगी) से पत्रकारिता की प्रेरणा मिली थी।
पं0 सुन्दर लाल ने आगे लिखा है कि वह (कर्मयोगी) पत्र उन दिनो बहुत लोकप्रिय पत्र था। ‘‘जब वह पत्र निकलता था गणेश शंकर विद्यार्थी जो शायद उन दिनो विद्यार्थी ही थे। मेरे पास बहुत आया जाया करते थे। हमें बडा प्रेम था। वह शुरू से ही होनहार थे। देशभक्ति की ज्वाला बडे जोरों के साथ उनके हृदय में शुरू से धधकती थी। ‘कर्मयोगी‘ के लिए उन्होने बहुत कुछ लिखा भी है। मुझे इस चीज का गर्व के साथ स्मरण है कि स्व0 गणेश जी ने हिन्दी लिखना कर्मयोगी के दफ्तर में ही सीखा। उनकी पत्रकारिता का शुभारम्भ भी यहीं से होता है’’ Ganesh Shankar Vidyarthi Kaun The
छात्र जीवन व्यतीत हो चुका था तथापि अपने आप को विद्यार्थी मानकर नाम के साथ वह विद्यार्थी लिखने लगे थे। इसके साथ ही हिन्दी के शलाका पुरूष पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में भी बतौर सहायक के रूप में कार्य किया। विद्यार्थी जी ने द्विवेदी की इस पत्रिका में अनुभव तो पाया किन्तु उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल उन्हे सन्तोष नहीं मिला। उन्होने अपना कर्म क्षेत्र कानपुर को बनाया और अंग्रेजी हुकूमत में निष्पक्ष पत्रकारिता का तानाबाना बुनने के लिए कानपुर से 9 नवम्बर 1913 से महाशय काशीनाथ के सहयोग से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप‘ का प्रकाशन शुरू कर दिया। यही पत्र आगे क्रान्तिकारी पत्र के स्वरूप में तब्दील होकर दैनिक हो गया। इसी के साथ विद्यार्थी जी का राजनीतिक, सामाजिक प्रौढसाहित्य का जीवन प्रारम्भ हुआ। उन्होने पहले लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरू माना किन्तु राजनीति में गांधी के अवतरण के बाद वे उनके अनन्य भक्त हो गये। श्रीमती एनीबेसेन्ट के होमरूल आन्दोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से कार्य किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के छात्र नेता हो गये। कांग्रेस के विभिन्न आन्दोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के विरूद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप‘ मेें लेख लिखने के सम्बन्ध में वे पांच बार जेल गये और ‘प्रताप‘ से कई बार जमानत मांगी गयी। कुछ ही वर्षो में वह उ0प्र0 के चोटी स्तर के कांग्रेसी नेता हो गये।
‘‘प्रताप’’ किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। इसी लिये हम कह सकते है कि ‘प्रताप‘ पूर्णतः किसान आन्दोलन का समर्थक था। उसने किसानों पर होने वाले किसी भी अत्याचार का विरोध किया। विशेषकर तालुकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का खुलकर विरोध किया। उनके लिये किसानों मजदूरों और दरिद्र नारायण की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था।
इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने बिहार के चम्पारण व रायबरेली के मुन्शीगंज में किसानों पर अंग्रेजों के हुये अत्याचार और नृसंश हत्या के विरूद्ध ‘प्रताप‘ में प्रमुखता के साथ खबरों का प्रकाशन किया और मुकदमा भी लडे। विद्यार्थी जी ‘प्रताप‘ के दम पर क्रान्तिकारियों की मदद के लिए अन्जान नामों से भी सरदार भगत सिंह, बटुकेशरदत्त, विजय कुमार सिन्हा, चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों के लेख भी प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। जिससे उन्हें आन्दोलनोे में बल मिलता था। इतना ही नहीं ‘प्रताप‘ अखबार के प्रकाशन ने अंग्रेज शासको के दांत खट्टे कर दिये थे। ‘दैनिक प्रताप‘ ने सम्पादन के जो मानदण्ड स्थापित किये थे वह कालजयी साबित हुये धीरे-धीरे प्रताप पूरे देश में पत्रकारिता के क्षेत्र में झण्डा बरदावर हो गया।
विद्यार्थी जी अपनी बात मजबूती से रखने और लिखने में कभी भयभीत नहीं हुये। उनकी बहादुरी का ऐसा ही वाकया साल 1923 का है। जब झण्डागीत के रचनाकार ‘‘श्यामलाल गुप्त पार्षद’’ लखनऊ की जेल से छूटकर फतेहपुर आये तो उन्होनें एक विशाल प्रादेशिक राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया था। सम्मेलन के पहले दिन की अध्यक्षता के लिए पं0 मोती लाल नेहरू को आमंत्रित किया गया था। सम्मेलन के दूसरे दिन कार्यक्रम की अध्यक्षता गणेश शंकर विद्यार्थी ने की। सम्मेलन में विद्यार्थी जी अंग्रेजो के हुकूमत के विरूद्ध अपना ओजश्वी भाषण दिया था। इस भाषण को अंग्रेज अधिकारियों ने राजद्रोह समझा और विद्यार्थी जी के विरूद्ध 1 जनवरी 1923 को उनके विरूद्ध दफा 124 (अ) ताजिरात ए हिन्द मुकदमा न0-1 सन् 1923 थाना कोतवाली जिला फतेहपुर के नाम से चलाया गया। जिला मजिस्ट्रेट मि0 मैकलाइड के न्यायालय में चला।
30 मार्च 1923 ई0वी0 को गणेश शंकर विद्यार्थी को 1 वर्ष का कठोर कारावास व 100 रू0 जुर्माना न देने पर 3 माह अतिरिक्त कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इसके बाद उनके शुभचिन्तकों ने न्यायालय से माफी मांगने की सलाह दी। तो विद्यार्थी जी ने इसके लिए पत्नी पर छोड दिया। विद्यार्थी जी को सजा दिये जाने के परिपेक्ष उनकी पत्नी ने जो पत्र लिखा वह राष्ट्रभक्ति के प्रति उनका त्याग और बलिदान ही कहा जायेगा वह लिखती है ‘मै कर्तव्य करते हुये तुम्हारी मृत्यु भी पसन्द करूंगी और इस निश्चय के लिए बधाई देती हूं। यही जवाब उनके माता पिता का भी उन्हें प्राप्त हुआ। यह है विद्यार्थी जी का देश के प्रति सर्मपण का भाव था। जो जिला मजिस्ट्रेट के सामने दी गयी दलीलों को अपने भाषण को उचित ठहराया और कहा वह सिद्धान्तों से च्युत नहीं हो सकते और जेल और सजा भोगने को तैयार हैं।
लगभग 9 दशक पूर्व 25 मार्च 1931 को मुश्लिम हिन्दू एकता के इस महान सन्त गणेश शंकर विद्यार्थी जी की एक साम्प्रदायिक दंगे में कानपुर की नई सडक पर हत्या कर दी गयी थी। स्वाधीनता आन्दोलन की लडाई के दौरान 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव सिंह को फांसी दे दी गयी। 25 मार्च को यह खबर कानपुर पहुंची तो अंग्रेजों का बांटो और राज करो की नीति के तहत साजिश रचकर साम्प्रदायिक दंगे कराये गये। जिससे भारी जनाक्रोश से अंग्रेज हुकूमत के हितों की रक्षा हो सके। इस साम्प्रदायिक दंगे को रोकवाने के लिए विद्यार्थी जी कूद पडे थे। इसी दौरान उनकी हत्या कर दी गयी थी। उनका पार्थिव शरीर भी बामुश्किल बरामद हो पाया था। विद्यार्थी जी की सहादत पर गांधी जी ने उनके परिवार को भेजी गयी श्रृद्धांजलि में कहा था कि ‘‘मै नहीं मानता की गणेश शंकर की आत्माहुति व्यर्थ गयी मुझे जब इसकी याद आती है तो ईर्ष्या होती है मेरा भी स्वप्न है कि मै विद्यार्थी जी की ही तरह मरू।"
प्रखर पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी पर वैसे तो देश के कई लेखको ने शोध परख पुस्तक प्रकाशित की है किन्तु विद्यार्थी जी के गृह जनपद फतेहपुर के युवा स्तम्भकार व लेखक अमित राजपूत की ‘अन्तर्वेद प्रवर‘ गणेश शंकर विद्यार्थी से सन्दर्भित लिखी गयी पुस्तक किसी दस्तावेज से कम नहीं है। यही वजह है कि उन से सन्दर्भित कोई भी आख्यान अछूता नहीं रहा है। वह अपने आप में पूर्ण प्रतीत होती दिख रही है। यह उनकी विद्यार्थी जी के प्रति भावभीनि श्रृद्धांजलि है। अभी हाल में ही 20 अक्टूबर 2022 को उनके द्वारा लिखे गये ‘रहनुमा ए इत्तेहाद गणेश शंकर विद्यार्थी‘ पर रात्रि 09ः30 बजे आधा घन्टा का रूपक आकाशवाणी नई दिल्ली के हिन्दी सेवा से प्रसारित किया गया। जो विद्यार्थी जी के लिए कृतज्ञता ज्ञापित होती है। लेखक को भी फतेहपुर का होने का गर्व है। इस तरह कहा जा सकता है कि विद्यार्थी जी ने स्वस्थ्य पत्रकारिता के लिए जो मानदण्ड स्थापित किये थे वह आज के पत्रकारों व पत्रकारिता के लिए किसी चुनौती से कम नही है।