Pitru Paksha 2024: पितृ पक्ष क्या होता है? गयासुर से कैसे बना गया, जानिए श्राद्धतर्पण के महापर्व के बारे में
Pitru Paksha 2024
Pitru Paksha History: सनातन संस्कृति में पितृ पक्ष का विशेष महत्व है. श्राद्ध पक्ष हमारी कृतज्ञता का बोध कराती है..कैसे हुआ गया का निर्माण. गया में पिंडदान के बिना पितरों को क्यों नहीं मिलती हैं मुक्ति..इस पक्ष को महापर्व बता रहे हैं उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय के स्वतंत्र पत्रकार प्रेम शंकर अवस्थी

लेखक प्रेमशंकर अवस्थी/Pitru Paksh 2024: हमारी सनातन पद्धतियाँ कृतज्ञता ज्ञापक होती हैं इसलिये भारतीय मानस देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि के प्रति कृतज्ञता का बोध कराती हैं.
किसी के द्वारा किये गए उपकार या सहयोग आदि को न भूलना एवं उसको स्मरण रखते हुये उसके प्रति आभार प्रकट करना भारतीय परंपरा रही है. इसी भाव का प्रत्यक्ष उदाहरण है श्राद्ध पक्ष (Pitru Paksha) जिसे पितृ पक्ष के रूप भी जानते हैं.
श्राद्ध पक्ष की बात करें तो भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक के 15 (पन्द्रह) दिन प्रत्येक वर्ष पितृ पक्ष के माने गये हैं. इस वर्ष 18 सितम्बर 2024 ई० दिन बुद्धवार से 02 अक्टूबर 2024 दिन बुद्धवार तक श्राद्ध महापर्व हैं. यद्यपि पितरों की प्रसन्नता एवं उसकी कृपा प्राप्ति हेतु प्रतिदिन सन्ध्या-वन्दन के पश्चात् पितृ तर्पण का विधान है.
मानव जीवन में तीन प्रकार के कौन से ऋण होते हैं (Pitru Paksha)
भारतीय मनीषियों ने अपनी तत्वानुवेषी मेंधा एवं सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिक शोधों से मानव पर तीन प्रकार के ऋण का निर्धारण किया है. जो कि देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण के नाम से अभिहित हैं.
देव ऋण से मुक्ति के लिये शास्त्रसम्मत पूजन एवं ज्ञानार्जन का निर्देश है. जबकि ऋषि ऋण से अवमुक्त होने के लिये शिक्षार्जन, अत्मा बोध हेतु उपाय आदि का शास्त्र सम्मत विधान हैं. इसी श्रृंखला में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिये गृहस्थ जीवन में सन्तुलित आचरण, सन्तानोत्पत्ति, सन्तान को सुयोग्य नागरिक बनाना प्रमुख है. इसलिये ऋषियों ने "धन्यो गृहस्थाश्रमः" की उद्घोषणा की.
मुनियों ने बृह्मचर्य आश्रम, बानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम से गृहस्थ आश्रम धन्य घोषित किया. यह भी भारतीय कृतज्ञता का दर्शन है क्योंकि गृहस्त अनवरत श्रम से उपार्जन करके अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण करता है. अतिथि, साधु, अभ्यागत आदि की भी सेवा करता है. समाज सेवा हेतु भी योगदान करता है इसलिये शास्त्रकारों ने गृहस्थ जीवन की प्रशंसा की है.
श्रद्धा का महापर्व है श्राद्ध, कर्तव्य बोध का है प्रेरक (Pitru Paksha 2024)
श्राद्ध श्रद्धा का एक महापर्व है जो कि पितरों के निमित्त किया जाने वाला एक महा कर्तव्य है. पूर्वजों की अपूर्व कृपा से ही आज हम सब जीवित है. यह पूर्वजों का स्मृति समारोह है कर्तव्य बोध का प्रेरक है.
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि "अपनी संस्कृति सभ्यता एवं परम्परा को कभी भूलना नहीं चाहिये. आत्म गौरव एवं स्व कर्तव्य निष्ठा से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है"
पितरों के निमित किये जाने वाले कर्तव्य बोध को भी श्रीमद्भगवत गीता (अध्याय-3,12) याद दिलाती है ताकि इस परम्परा को आने वाली पीढ़ियां अनुशरण कर भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी अस्था बनाये रखे.
पद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
सयत्प्रणामं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते ।।
कहने का तात्पर्य है कि श्रेष्ठ पुरूष जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा आचरण करते हैं जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है.
भारतीय हिन्दू परम्परा में माता-पिता (पितरों) की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है. इसीलिये हिन्दू धर्मशास्त्रो में पितरों का उद्धार करने के लिये पुत्र की अनिवार्यता मानी गई है. जन्मदाता माता पिता को मृत्योपरान्त लोग भूल न जाये. इसलिए श्राद्ध (Shradhya) करने का विशेष विधान बताया गया है.
आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्य तक ब्रह्मण्ड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है. धार्मिक ग्रंथ पुराणों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर वैज्ञानिक विवेचन मिलता है. मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी सपिन्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है.
पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोडने पर धारण करती है प्रेत होती है. प्रिय के अतिरेक अवस्था प्रेत है क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया, भूख और प्यास का अतिरेक होता है. सपिन्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है.
पितृपक्ष (Pitru Paksha) में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है पुत्र या उसके नाम से उनका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिन्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है. ठीक आश्विनकृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख्य होने लगाता है और 15 दिन तक अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर बृहांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते है इसलिये इसको पितृपक्ष (Pitru Paksha 2024) कहते है और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है.
गया में पिंडदान श्राद्ध कर्म का क्यों है इतना महत्व (Pitru Paksha 2024)
पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन, कर्म, वाणी से संयम का जीवन जीते है, पितरों को स्मरण करके जल चढ़ते है निर्धनों एवं ब्रम्हाणों को दान देते है पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता पिता का श्राद्ध किया जाता है. परन्तु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है वैसे भी इसका शास्तीय समय निश्चित है, परन्तु "गया सर्वकालेषु पिंड दधाद्विपक्षणम्' कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गयी है. पुराणों के व्याख्यान में वैसे तो श्राद्ध कर्म या तर्पण करने के भारत में कई स्थान है.
लेकिन बिहार (Bihar Pitru Paksha) में पवित्र फल्गु नदी के तट पर बसे प्राचीन गया शहर (Gaya District) की देश ही नही बल्कि विदेशों में भी पितृपक्ष (Pitru Paksha) और पिंडदान को लेकर अलग पहचान है पुराणों के अनुसार पितरों के खास आश्विन मास के कृष्णपक्ष या पितृपक्ष "मोक्षधाम गयाजी" आकर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और माता पिता व सात पीढ़ियों का उद्धार होता है.
पितृ की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी, सहित सभी पूर्वज शमिल होते है. व्यापक दृष्टि से मृत गुरू और आचार्य भी पितृ की श्रेणी में आते है. कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेंदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था इनमें अब 48 ही बची हैं.
यहां की बेदियों में विष्णुपाद मन्दिर फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है. इसके अतिरिक्त बैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुण्ड, नागकुण्ड, पांण्डुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिण्डदान के लिये प्रमुख है. यही कारण है कि भारत में श्राद्ध के लिये 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है. जिसमें गया (Gaya District) का स्थान सर्वोच्च है.
कैसे हुआ गया का निर्माण क्या है गयासुर से संबंध (Pitru Paksha)
गया का पुराणाों में पितृश्राद्ध एवं पिण्डदान के रूप में कई कारणों से महत्व दर्शाता गया है. बताया जाता है कि गयासुर नामक असुर ने कठिन तपस्या कर ब्रह्म जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाये और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाये. इस बरदान के चलते लोग भयमुक्त होकर पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से फिर पाप मुक्त हो जाते थे.
इससे बचने के लिये देवताओं ने यज्ञ के लिये गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की गयासुर (Gayasur) ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिये दे दिया. जब गयासुर लेटा तो उस का शरीर पांच कोस में फैल गया. यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बना.
यह भी उल्लेख है कि देहदान के बाद गयासुर (Gayasur) के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर से देवताओं से वरदार मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे. तब से ही यह स्थान मृतकों के लिये श्राद्धकर्म मुक्ति का स्थान बन गया.
गया में पिंडदान के बिना नहीं मिलती है पितरों को मुक्ति (Gaya Pinddan)
कहते है कि गया वह आता है जिसे अपने पितरों को मुक्त करना होता है लोग अपने पितरों या मृतकों की आत्मा को हमेशा के लिये छोडकर चले जाते है प्रथा के अनुसार सबसे पहले किसी भी मृतको को तीसरे वर्ष श्राद्ध में लिया जाता है और फिर बाद में उसे गया में हमेशा के लिये छोड दिया जाता है. गया में श्राद्धोंपरान्त अंतिम श्राद्ध बदरीका क्षेत्र के ब्रह्म कपाली में किया जाता है.
समूचे भारतवर्ष में हीं नही सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत ही प्रसिद्ध है वह दो स्थान है बोध गया, और विष्णुपद मन्दिर. विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भागवन विष्णु के चरण उपस्थित हैं. जिसकी पूजा करने के लिये लोग देश के कोने-कोने से आते है. गया में जो दूसरा प्रमुख स्थान है वह स्थान एक नदी है उसका नाम फल्गु नदी (Falgu River) है.
ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान किया था तभी से यह माना जाने लागा है कि इस स्थान पर आकर जो भी व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त पिंडदान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृ से उर्रिण हो जायेगा.
पुराणों में एक प्रसंग और भी है कि गया स्थान का नाम गया इसलिये रखा गया क्योंकि भागवान विष्णु ने इसी धरती पर असुर गयासुर का वध किया था. तभी से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा आदर से गया जी बोला जाता है. कहते हैं कि गया क्षेत्र में भगवान विष्णु पितृदेवता के रूप में हमेशा विराजमान रहते हैं.
पुराणों के अनुसार यह भी उल्लेखनीय है कि ब्रह्मज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरूक्षेत्र में निवास ये चारों मुक्ति के साधन हैं. गया में श्राद्ध करने से बह्य हत्या, सुरापान, स्वर्ण की चोरी, गुरू पत्नी गमन उक्त संसर्ग जनित सभी महापातक भी नष्ट हो जाते हैं.
पुराणों में तर्पण (पितृयज्ञ) की क्रिया से प्राप्त फल का भी उल्लेख किया गया है.
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रीस्त्रीन् दयाज्जलाजलीन ।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणा देव नश्यति ।।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं उनके जनम से तर्पण के दिन तक पापों का नाश हो जाता है. हिन्दू धर्मदर्शन के अनुसार जिसका जिस प्रकार जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है.
पितृ पक्ष (Pitru Paksha 2024) में तीन पीढ़ियां तक के पिता पक्ष के साथ तीन पीढ़ियां माता पक्ष के पूर्वजों के लिये तर्पण किया जाता है इन्हीं को पितर कहते हैं दिव्यपितृ तर्पण, देवतर्पण, ऋषितर्पण, द्विव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् स्व पितृतर्पण किया जाता है जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है उसी तिथि को पितृपक्ष (Pitru Paksha) में श्राद्ध किया जाता है.
शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्राद्धपूर्वक श्राद्ध करता है उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते है एवं पितृ ऋण से मुक्त मिली जाती है.
पुराणों में पितरों को तर्पण व पिण्डदान (श्राद्ध) कर्म के अभाव में श्रापित किये जाने का भी विधान वर्णित है.
अतर्पिता शरीशुद्धधिरं पिबन्ति
ब्रह्मादिदेव एवं पितृगण तर्पण न करने वाले मानव के शरीर का रक्तपान करते है अर्थात दर्पण न करने की दशा में पाप से शरीर का रक्त-शोषण होता है. इसीलिए मानवी धर्म है कि वंश परम्परा को अश्रुण्य रखने समाजोपयोगी जीवन जीने एवं मानवी लक्ष्य को विस्मृत न करने हेतु श्राद्धकर्म की क्रिया को अपनाना ही सच्चा धर्म है. जो खुद व पितरों के लिये मोक्ष का द्वार खोलता है.
लेखक प्रेमशंकर अवस्थी उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं